Dbg

28.11.2024 (DarbhangaOnline) (दरभंगा) : महाराजाधिराज डा. सर कामेश्वर सिंह जी का 117 वाँ जन्म दिवस महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन द्वारा कल्याणी निवास, दरभंगा में समारोह पूर्वक मनाया गया। इस अवसर पर पिछले वर्षों की भाँति 'महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह स्मृति व्याख्यान' आयोजित किया गया। इस वर्ष का स्मृति व्याख्यान संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं के प्रसिद्ध विद्वान एवं चिंतक प्रो.राधा वल्लभ त्रिपाठी ने "आधुनिक भारत की सारस्वत साधना : संस्कृत पाण्डित्य परम्परा के संदर्भ में" विषय पर दिया।

अपने सारस्वत उद्बोधन में प्रोफेसर त्रिपाठी ने भारतीय शास्त्र परम्परा को पांच चरणों में विभक्त करते हुए, इनकी विस्तार से व्याख्या की। इसका प्रथम चरण जिसे इसका उद्भव काल या मंत्रकाल भी कह सकते हैं , जो 5000 विक्रम पूर्व से 1000 विक्रम पूर्व का कालखंड है। इस काल में चारों वेदों और उनके वेदांगों का संकलन हुआ। दूसरा चरण उन्मेष काल है जो 1000 विक्रम पूर्व से विक्रमाविर्भाव वर्ष तक है और इस काल में सूत्र साहित्यों का प्रणयन हुआ और आगे तक चलता रहा। तीसरा चरण विकास काल है जो प्रथम शती वै. से 10 वीं शती वै. तक चला। इस कालखण्ड में पूर्व के पुस्तकों ( वेदों, वेदांगों, उपनिषदों) के भाष्य लिखे गए और भारतीय ज्ञान और दर्शन का सर्वाधिक विस्तार इसी कालखण्ड में हुआ। चौथा चरण विस्तार काल है जो ग्यारहवीं शती से अठारहवीं शती तक चला। इस कालखण्ड में दर्शन, विज्ञान, साहित्य आदि ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में नवीन भाष्यों, टीकाएँ और मौलिक ग्रंथों का प्रणयन हुआ। अरबों एवं अन्य विदेशी विद्वानों के द्वारा भारतीय ग्रंथों का अपनी अपनी भाषाओं में अनुवाद हुआ और भारतीय ज्ञान परम्परा का विस्तार पूरे एशिया और यूरोपीय महाद्वीप में हुआ।

उन्नीसवीं से इक्कीसवीं शती भारतीय सारस्वत साधना का पांचवा चरण है जो अभी भी निरंतर चल रहा है। प्रोफेसर त्रिपाठी ने बतीस विद्याओं की चर्चा की, जिनमें भारतीय ज्ञान - दर्शन के साथ ही यवनमत (इस्लामी दर्शन) और देशादिधर्म की भी चर्चा इन बतीस विद्याओं में की।शास्त्र परम्परा की दस हजार वर्षों की इस सतत विकास यात्रा में बीसवीं शती में भी नवीन मौलिक ग्रंथों का प्रणयन हुआ। जिनमें परम्परागत विद्याओं और नवीन ज्ञान विज्ञान के ग्रंथ भी हैं। इनमें संस्कृत के वैचारिक साहित्य की श्रेष्ठ कृतियाँ भी हैं। वर्तमान विश्व के मूर्धन्य दार्शनिकों में परिगणित होने वाले विद्वान भी हैं। बीसवीं शती के मूर्धन्य दार्शनिक महामहोपाध्याय रामावतार शर्मा (1877 - 1928), जो इसी बिहार की धरती की उपज हैं, का परमार्थ दर्शन दर्शनीय है। इनका परमार्थदर्शनम् एक दार्शनिक कृति है।

इनका वैदुष्य पतंजलि और कुमारिल भट्ट के समकक्ष है। यह भारतीय दर्शन का नवीनतम क्षेत्र है। आधुनिक काल के पांच पुस्तकों की चर्चा की जिन पुस्तकों ने काफी हद तक आधुनिक पांडित्य को पूरे विश्व में प्रभावित किया है। पहली पुस्तक महानिर्वाणतंत्र है, जो 1775-1875 के बीच लिखी गई थी। इस पुस्तक में नागरिक, समाज, धर्मशास्त्र आदि विविध पक्षों की व्याख्या की है। इसमें पंचम वर्ण की व्यवस्था की और पांचों वर्णों को जातिप्रथा और छूआछूत से परे समाज के नव संगठन की चर्चा है। दूसरी पुस्तक शब्दार्थरत्नाकर है जो तारानाथ तर्कवाचस्पति की रचना है।

वस्तुतः यह वाक् का दर्शन है।आधुनिक फ्रांस में विकसित ग्रामोटोलाजी, पोस्ट माॅडर्निज्म और थ्योरी औफ डिस्ट्रक्शन (विखंडन का सिद्धांत) यहीं विकसित हुए हैं। तीसरी पुस्तक सनातन धर्मोद्धारोद्धार है। चौथी पुस्तक परमार्थ दर्शनम् है। और पांचवीं काव्यालंकार कारिका हैं। ये पांचों पुस्तक आधुनिक दर्शन, समाजिक विज्ञान, भाषा विज्ञान, तर्कशास्त्र आदि क्षेत्रों में नवीन ज्ञान को प्रतिपादित करने का श्रेय भारत को है। किन्तु पश्चिमी छल ने हम से हमरा ज्ञान तो लिया किन्तु हमें श्रेय नहीं दिया। समारोह की अध्यक्षता प्रो. श्रीश चन्द्र चौधरी (पूर्व प्राचार्य, अंग्रेजी विभाग, आई.आई.टी, चेन्नई) ने किया। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रोफेसर चौधरी ने मिथिला के पारम्परिक ज्ञान परम्परा की चर्चा की और यहाँ के लोगों द्वारा नवीन भाषा को सीखने की जिज्ञासा की व्याख्या की।

मनुष्य माता के गर्भ से सीखना प्रारम्भ कर देता है। विश्व की सभी भाषाओं में अक्षर बनने की प्रक्रिया लगभग एक ही है। पाणिनि ने बड़ा वैज्ञानिक व्याकरण बनाया जो दुनिया की किसी भी भाषा पर लागू किया जा सकता है। ग्रियर्सन ने मैथिली भाषा की विभिन्न बोलियों का रिकार्डिंग कराया था। एच एम वी ने इनका रिकार्डिंग किया था, जो आज भी उपलब्ध हैं। अंग्रेजी भाषा के छात्रों एवं शिक्षकों को अंग्रेजी अध्ययन - अध्यापन में होने वाली समस्याओं का विस्तार से निरूपण किया। अपने उद्बोधन के प्रथम भाग में उन्होंने नये अंग्रेजी सीखने वालों की समस्याओं एवं आकांक्षाओं की विस्तार से व्याख्या की। दूसरे भाग में अंग्रेजी भाषा सीखने से सम्बन्धित नवीन तकनीक की चर्चा की और अंत में समस्याओं को सुलझाने के लिए नवीन तकनीक और रास्तों की चर्चा की।

इस समारोह में फाउण्डेशन द्वारा 'कामेश्वर सिंह बिहार हेरिटेज सीरीज' के अन्तर्गत इस वर्ष अयोध्या प्रसाद 'बहार' रचित एवं स्व.प्रो.हेतुकर झा द्वारा सम्पादित "रियाज - ए - तिरहुत" के द्वितीय संस्करण का लोकार्पण हुआ। "रियाज-ए-तिरहुत" पहली बार 1868 में प्रकाशित होने के बाद करीब सौ वर्षों तक विद्वानों के नज़रों से ओझल रही, जिसे 1997 में महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह बिहार हेरिटेज सीरीज के अन्तर्गत प्रकाशित कर विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत किया गया। पुस्तक परिचय डाक्टर मंजर सुलेमान ने प्रस्तुत किया। इस पुस्तक में दरभंगा शहर और आसपास की कई ऐसी जानकारियाँ हैं, जो अन्य किसी रिपोर्टों या पुस्तकों में नहीं मिलती हैं, इसलिए यह पुस्तक क्षेत्रीय इतिहास में रूचि रखनेवाले अध्येताओं और समाजिक विज्ञान के शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण है।

कार्यक्रम की शुरुआत भगवती वंदना से हुई। सभी आगत अतिथियों ने महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के चित्र पर माल्यार्पण कर श्रद्धा सुमन अर्पित किया। इसके बाद फाउंडेशन के कार्यकारी पदाधिकारी श्रुतिकर झा ने सभी अतिथियों का परिचय सभा से कराया। स्वागत भाषण पंडित रामचंद्र झा ने दिया। धन्यवाद ज्ञापन डाक्टर जे. के. सिंह ने किया।